साँझ हुई बैलों की जोड़ी
भूखी प्यासी दौड़ी आई
बाहर जब घंटियाँ बजीं तो
आँगन तक पड़ गईं सुनाई।
चोकर, चूनी, चली, चलाने
जल्दी से निकली घरवाली
बैलों का माथा सहलाया,
मुझको दी खाने की थाली
माँ के ये ‘‘हीरा-मोती’’ थे
मेरी मक्के की रोटी थे,
मेरी बिटिया की शादी थी
बेटों-बहुओं की तरुणाई।
पानी से भरे पोखरे थे
पेड़ों से हरा-भरा कोना
‘तुलसी’, ‘कबीर’ थे ढोलक थी
देने को अंजुरी का दोना
थोड़ी जमीन जो थी मेरी
उसमें दो फसलों की ढेरी,
इनसे ही उत्सव मेले थे,
इनसे कर्जों की भरपाई।
आ गईं मशीनें बेशुमार
छिनती धरती पानी के घर
बढ़ती जाती विकास की दर
खेतों में उगते हैं पत्थर
दिल्ली को सुंदर करते हैं
पर, ‘विदर्भ’ में हम मरते हैं
‘‘पूँजी की गति’’ धीमी रखते
काबू में रहती महँगाई।